Government School In Bihar
Government School In Bihar
PATNA- 20 साल बाद भारत को आप कहां देखना पसंद करेगें। यकीनन आप भारत को एक विकसित देश की फेहरिस्त में देखना चाहेगें। देश की तरक्की के लिए कई सारी चीज़े एक साथ काम करती है, उन सब में शिक्षा का मोकाम सबसे उपर है। शिक्षा कहां दी जाती है तो उसका जवाब आप को मालुम है कि उसकी शुरुआत स्कूलों से होती है। यानी मां की गोद के बाद स्कूल की गोद ही एक ऐसी जगह है जहां देश का भविष्य तैयार होता है। स्कूल जितना अच्छा होगा देश का भविष्य उतना ही उजवल और ताबनाक होगा। आइए स्कूलों को एक नये नज़रिये से देखने की कोशिश करते हैं।
राष्ट्रीयता की भावना
सरकारी स्कूलों में एक साथ समाज के हर तबके के बच्चे तालीम हासिल करने पहुंचते हैं। दलित, ग़रीब, आदिवासी, मुसलमान और विभिन्न जातियों के बच्चे। वो स्कूल के एक आंगन में एक साथ एक क्लास में एक ही शिक्षक से एक ही तरह की किताबें पढ़ते हैं। स्कूलों का कमाल है कि वो देश की 80 फीसदी आबादी को आने वाले भविष्य के लिए तैयार करता है। यानी 20 साल बाद भारत में लोगों की मानसिकता क्या होगी, उनका समाजिक और बौद्वीक स्तर क्या होगा उसका पुरा दारो मादार आज की तालीम पर है। स्कूलों का आंगन देश का वो मोकाम होता है जहां देश के भविष्य को निर्माण किया जाता है। भविष्य के लोगों के दिलों में राष्ट्रीयता की भावना जगाई जाती है। विभिन्न समाज के बच्चों के साथ तालीम हासिल करते हुए बच्चे कई तरह के तजरबे से हो कर गुजरते हैं जिसमें सबसे खुबसुरत तजरबा एक दुसरे से मोहब्बत का होता है और यहीं से एक बेहतर समाज की शुरुआत होती है। कह सकते हैं कि राष्ट्रीयता की भावना और मौजुदा सांस्कृति की हिफाज़त अगर कोई कर रहा है तो वो स्कूल है और वहां के शिक्षक हैं।
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अफसोस की बात
समाज में क्या शिक्षकों को वो मोकाम हासिल है जो होना चाहिए था। आप गौर करेगें तो अफसोस के साथ शर्म महसुस होगा। देश के भविष्य को तैयार करने वाला शिक्षक मामूली एक वेतन के लिए दर दर की ठोकरे खाता हुआ आप को नज़र आ जाएगा। मामूली सुविधा के लिए भी शिक्षकों को आंदोलन करने की नौबत आ जाती है। अब ये सवाल उठना क्या लाज़मी नही है कि जो सरकार शिक्षकों को वेतन वक्त पर नही दे पाती हो उस सरकार को डूब मरना चाहिए। पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने एक किताब लिखी थी– इक्कीसवीं सदी का भारत, किताब में लक्ष्य था 2020 तक भारत को विकसित देशों की श्रेणी में पहुंचाने का। अफसोस 2021 में भी वो मकसद पूरा नही हो सका।
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सरकार
जो सरकार शिक्षकों के मसले को हल नही कर सकती वो सरकार निकम्मी है। इस तरह के नारे आप ने शिक्षकों की जबान से ज़रुर सुने होंगे। बात बिहार की करें तो बिहार सरकार स्कूलों में दर्जनों योजनाओं को लागु करने का दावा करती है। ये सही भी है साइकिल योजना और पोशाक योजना से लेकर छात्रवृत्ति योजना तक सरकार ने सुविधाएं दी है लेकिन स्कूलों के मामले में सरकार की प्राथमिकता क्या है ये बिल्कुल साफ है। किसी भी स्कूल में चले जाइए बुनियादी सुविधा का आभाव दिखाई देगा। जिस सरकार को अपने छात्रों की चिंता नही हो वो सरकार विकास की बात करती है तो वो दिखावा है। विकास देश का भविष्य होता है और भविष्य के साथ क्या हो रहा है ये बताने की ज़रुरत नही है।
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शिक्षक
बिहार के Government School में शिक्षको का नज़रिया भी बदल गया है। अब वो तालीम से ज्यादा किसी और चीज में मसरूफ रहते हैं। छात्रों को शिक्षा देना उनकी प्राथमिकताओं का हिस्सा नही है। ज्यादातर Government School In Bihar के शिक्षकों का राब्ता बच्चों से उस तरह का नही है जिस तरह का होना चाहिए था। सरकार जवाबदेह है कि वो सुविधाएं कम देती है तो शिक्षक जवाबदेह हैं कि वो ठीक से अपनी जिम्मेदारी पूरी नही करते हैं।
मदरसा
ये एक आम ख्याल है कि देश का अल्पसंख्यक समुदाय मदरसों में पढ़ता है। ये बात ग़लत है। जस्टिस राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हो चुका है कि सिर्फ 04 फीसदी मुस्लिम बच्चे मदरसों में पढ़ते हैं। तो फिर 96 फीसदी बच्चे कहां पढ़ते हैं, ज़ाहिर है स्कूलों में पढ़ते हैं या फिर वो पढ़ नही पाते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय की तादाद बिहार में 17 फीसदी है यानी 4 फीसदी मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों पर ही तमाम सियासी पार्टियों की सियासत होती है बाकी छात्रों को कोई पुछता तक नही है। मज़े की बात ये है कि वो 04 फीसदी बच्चे जो मदरसें में पढ़ते हैं जिस पर सियासी पार्टियां वोट की सियासत करती है फिर भी उन मदरसों की हालत बिहार के सरकारी स्कूलों से ज्यादा खराब है।
भाषा
बात अल्पसंख्यक समाज कि तालीम की करें तो सर सैयद अहमद खान के जमानें में उनकी हैसियत के एक और रहनुमां हुआ करते थे। नाम था सैयद जमालुद्दीन अफग़ानी। वो 1855 में भारत आए थे और 1857 की तबाही को देखा था। सर सैयद अहमद खान की अंग्रेजों से दोस्ती और अंग्रेजी तालीम के उनके रुझान के वो सख्त विरोधी थे। सैयद जमालुद्दीन ने उस वक्त कहा था कि राष्ट्रीयता की लाज़मी शर्त ये है कि मुल्क के लोगों को चाहिए की वो आधुनिक तालीम को उर्दू में तरजुमा करा कर छात्रों को पढ़ाएं। डेढ़ सौ साल बाद भी मुस्लिम समाज के बुद्दिजीवी यही बात कह रहे हैं कि उर्दू में तालीम को फरोग दिया जाना चाहिए। मदरसों में आधुनिक तालीम का इंतज़ाम होना चाहिए। उर्दू में किताबें तरजुमा कराई जानी चाहिए। तब की बात और अब की बात एक जैसा देख कर हैरत होता है।
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