Leadership Challenges Ka Samna

 

Leadership Challenges Ka Samna

 

Leadership Challenges ka Samna करता अल्पसंख्यक समाज

 

PATNA- अल्पसंख्यक समाज के साथ यूं तो कई मसले है उसमें सबसे बड़ा मसला सियासी नेतृत्व की कमी से जुड़ा है। सियासत में हिस्सेदारी के सवाल पर कभी देश का बटवारा हुआ तो सियासी हिस्सेदारी के सवाल पर ही राजनीतिक पार्टियां आज तक अल्पसंख्यक समाज को सियासत में उलझा कर अपना उल्लू सीधा करती रही है। मुस्लिम वोट बैंक पर उसी सियासी हिस्सेदारी के सवाल पर ही अलग-अलग राजनीतिक दलों के मुस्लिम नेताओं ने सत्ता से करीब रहने का रास्ता बनाया है लेकिन सच्चाई ये है कि अल्पसंख्यकों को न ही हिस्सेदारी मिल सकी है और न ही उनके बुनियादी मसले हल हुए है। इस बात का जिक्र राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी किया गया था। जानकारों के मुताबिक शैक्षणिक और आर्थिक एतबार से हाशिए पर खड़े समाज को सियासत में भी हाशिए पर रखा जाए तो ज़ाहिर है उनके बुनियादी मसले को हल करने की राह आसान नहीं होती है।

 

Leadership Challenges Ka Samna

 

 

मुस्लिम संगठनों के नेतृत्व पर उठ रहा है सवाल 

 

अल्पसंख्यक समाज leadership challenges ka Samna दशकों से कर रहा है। कई फिरके और ग्रुप में बटा मुस्लिम समाज अपने वोट की ताकत को महसूस तो करता है लेकिन उस ताकत का इस्तेमाल करने के बाद भी उनकी मुल समस्याएं हल नहीं हो पाई है। सुन्नी, शिया, वहाबी, देवबंदी, बरेलवी, तबलीगी जमात, जमात-ए-इस्लामी, जमीत-ए-उलमा, इमारत-ए-शरिया, एदार-ए-शरिया इत्यादि के नाम से कई फिरके और संगठन हैं। वर्षों से मुस्लिम संगठन अल्पसंख्यकों के विकास के नाम पर काम करने का दावा करते रहे हैं फिर भी सात दशक बाद भी सुरते हाल में कोई बड़ा बदलाव का नहीं होना मुस्लिम संगठनों के नेतृत्व पर भी सवाल खड़ा करता है। आलिम-ए-दीन का कहना है कि मुस्लिम संगठनें धार्मिक मामले को देखती है और लोगों में जागरूकता पैदा कर धार्मिक और सामाजिक मसले को हल करने की कोशिश करती है। उधर बुद्धिजीवियों का कहना है कि मुस्लिम संगठनों का काम अपनी जगह पर है लेकिन अल्पसंख्यक समाज में अभी भी बुनियादी सवाल उनकी मौलिक अधिकारों से जुड़ा है जो बदकिस्मती से अब तक हल नहीं हुआ है।

 

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मज़हबी रहनुमाओं के हाथों में है मुस्लिम समाज का नेतृत्व

 

ऐसा नहीं है कि अल्पसंख्यक समाज में सियासी नेता नहीं है। नेताओं की कोई कमी नहीं है लेकिन सियासी नेतृत्व नहीं है। सियासी नेतृत्व की कमी के कारण मुस्लिम समाज अपने बुनियादी सवालों को भी सरकार के सामने नहीं रख पाते हैं। शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक एतबार से पिछड़े मुसलमानों के सामने leadership challenges ka Samna है। आज़ादी से पहले मुस्लिम समाज के पास राजनीतिक नेतृत्व के साथ-साथ धार्मिक नेतृत्व मौजूद था लेकिन आजादी के बाद राजनीतिक नेतृत्व खत्म हो गया और उसकी जगह सिर्फ धार्मिक नेतृत्व बाकी रहा। आज भी धार्मिक नेता ही मुस्लिम समाज का नेतृत्व करते नज़र आते हैं। ये सच्च है कि विभिन्न अल्पसंख्यक संगठनों ने अपने-अपने तरीके से अकलियतों के बीच काम करने की कोशिश की है। अल्पसंख्यक संगठनों के काम का लाभ भी हुआ है लेकिन ये भी सच्च है कि उनकी कई वर्षों की मेहनत के बाद भी अल्पसंख्यकों के हालात में बदलाव नहीं हो सका है।

 

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सियासी नेतृत्व की कमी का समाज पर हुआ है गहरा असर

 

सियासी नेतृत्व की कमी का मुस्लिम समाज पर गहरा असर पड़ा है। ये बताने की जरूरत नहीं है कि हर चुनाव में अल्पसंख्यकों की आबादी के अनुसार टिकट देने की मांग की जाती है। leadership challenges ka Samna कर रहे मुस्लिम लीडर और मुस्लिम समाज को लगता है कि आबादी के एतबार से सियासी पार्टियों की तरफ से अल्पसंख्यकों को नुमाइंदगी दी गई तो उनके मसले आसानी से हल हो सकते हैं। वर्षों से सत्ता से बाहर रहने वाला अल्पसंख्यक समाज ये महसूस करता है कि सत्ता में नहीं होने के कारण ही उनकी बुनियादी मसले का हल नहीं निकलता है। अल्पसंख्यक इलाकों में स्कूल, स्वास्थ्य, बुनियादी सुविधा, सड़क, पीने का पानी इत्यादि की कमी का मामला अपनी जगह पर आज भी कायम है।

 

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पूरी तरह से सरकार पर निर्भरता से हुआ नुकसान

 

जानकारों के मुताबिक बहुत ज्यादा सरकार पर निर्भरता भी मुस्लिम समाज को हाशिए पर खड़ा करने का कारण बनी है। नेतृत्व की कमी है लेहाज़ा कोई ठोस अभियान मुस्लिम समाज में फलोअप के साथ नहीं चलता है। किसी संगठन का मन हुआ तो किसी मुद्दे पर कभी कोई कार्यक्रम कर लिया और फिर उस मुद्दे पर वर्षों खामोशी छाई रही। फलोअप नहीं होने से अल्पसंख्यक संगठनों का पैसा भी खर्च होता है और नतीजा कुछ भी हासिल नहीं होता है। फलोअप होता तो समझ में आता की फलां मुद्दे पर इतना काम हुआ है और इतने काम करने की अभी और जरूरत है। उधर मुस्लिम नेता सिर्फ सरकार को कसूरवार बता कर अपनी जवाबदेही पूरी कर लेते है और अल्पसंख्यक समाज बगैर किसी मदद के बुनियादी समस्याओं में उलझा रह जाता है।

 

अल्पसंख्यकों की राजनीति करने वाली पार्टियों ने भी रखा हाशिए पर

 

जानकारों के मुताबिक आबादी के एतबार से सियासत में हिस्सेदारी देने के सिलसिले में उन पार्टियों ने भी अपना पला झाड़ने की कोशिश की है जिनकी सियासत का आधार ही मुस्लिम वोटर रहा है। सत्ता में नुमाइंदगी नहीं देकर राजनीतिक दलों ने अल्पसंख्यक समाज को हमेशा सत्ता से बाहर ही रखा है। जानकारों का कहना है कि उसका खामियाजा मुस्लिम समाज को उठाना पड़ा है। शैक्षणिक एतबार से पिछड़ने से वो आर्थिक तौर पर भी बेहद पीछे छूट गए हैं।

 

अल्पसंख्यक नेताओं ने भी समाज को मजबूत करने की नहीं की कोशिश

 

मुस्लिम सियासी नेताओं ने सिर्फ अपनी-अपनी पार्टियों के लिए ही सियासत की है। जानकारों का कहना है कि मुस्लिम नेताओं की पूरी कुव्वत इस बात पर खर्च होती है कि वो अपने सियासी वजूद को किस तरह से बनाए रखे। इसके लिए वो हर कोशिश करने को तैयार रहते हैं। मुस्लिम नेताओं ने समाज के नेतृत्व करने की कोशिश नहीं की है। अगर कभी उन्होंने समाज का नेतृत्व करने का मंसूबा भी बनाया तो मुस्लिम समाज ने उन्हें नकार दिया। अल्पसंख्यकों ने अपना नेता लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, ममता बनर्जी इत्यादि नेताओं को बनाया। क्षेत्रीय दलों के वोट बैंक के तौर पर काम करना बेहतर समझा। कांग्रेस पार्टी को वोट दिया तो कभी सेकुलरिज्म के नाम पर नेताओं के भाषण से खुश हो कर अपने वोटों से उनकी झोली को भरते रहे। इस उम्मीद पर कि उनकी समस्याओं का समाधान होगा।

 

पढ़ा लिखा समाज का बदल रहा है नजरिया

 

अल्पसंख्यकों का पढ़ा लिखा समाज का कहना है कि राजनीति अपनी जगह पर ठीक है लेकिन सिर्फ सरकार के भरोसे अल्पसंख्यकों का मसला हल नहीं हो सकता है जब तक कि वो खुद अपनी हालत को बदलने की कोशिश नहीं करें। सियासत में हिस्सेदारी की मांग के साथ-साथ समाज की तरफ से भी ठोस मंसूबा बना कर काम करने की आवश्यकता है ताकि कुछ सालों के बाद वो भी अपनी समस्याओं को खुद हल करने के काबिल बन सके। इस संबंध में कुछ पहल हुई है, नौजवान नस्ल अपनी कोशिश से अपने तकदीर को बदलने का प्रयास कर रहा है। जानकारों का कहना है कि वक्त बदलने के साथ-साथ हालात भी बदलते है इसके लिए जरूरी है कि समाज में भाई चारा मजबूत हो और समाज का हर वर्ग अपने-अपने स्तर से एक-एक कदम आगे बढ़ने और पहल करने की कोशिश करें।

 

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