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Second Official Language Urdu

 

Second Official Language Urdu

 

Part- 2

सरकार की लापरवाही

PATNA : बिहार में उर्दू को सरकारी स्तर पर लागु कराने के लिए सरकार की तरफ से जो कोशिश की जा सकती है वो नही की गई। उर्दू आबादी को इस बात का हमेशा अफसोस रहा कि जो जबान हिन्दुस्तान की गौद में परवान चढ़ी हो उस ज़बान के सिलसिले में सरकार की तरफ से ठोस कदम क्यूं नही उठाया गया। सिर्फ बयान बाजी और चुनाव के समय उर्दू का नारा लगा कर ही सरकार अपनी जिम्मेदारी पूरी करती रही है।

 

 

उर्दू निदेशालय

गौर करे तो उर्दू निदेशालय एक बड़ा एदारा है जहां से Second Official Language Urdu के विकास के लिए सरकारी स्तर पर काम की शुरुआत की गई है। जानकार कहते है कि उर्दू निदेशालय पर सरकार काफी पैसा खर्च करती है ऐसे में निदेशालय की ये जवाबदेही है कि वो उर्दू की तरक्की के लिए काम करे। खासबात ये है कि उर्दू निदेशालय एक जमाने तक नाम का एदारा रहा लेकिन इम्तियाज़ अहमद करीमी के डायरेक्टर बनने के बाद उर्दू निदेशालय ने काम करना शुरु किया और फिलहाल कहा जा सकता है की निदेशालय विभिन्न ज़िलों में अपने कर्मचारियों से उर्दू का काम करा रहा है। ये भी सच्च है कि ज़िलों में नियुक्त उर्दू के कर्मचारी उर्दू के विकास के लिए बहुत ज्यादा संजीदा नही होते हैं। जानकारों के मोताबिक मौजुदा डायरेक्टर को इस सिलसिले में मोनासिब कदम उठाना चाहिए।

 

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उर्दू की संस्थाएं

उर्दू अकादमी एक ऐसा एदारा है जहां से Second Official Language Urdu के विकास के लिए काफी काम किया जाता है। अकादमी तीन सालों से भंग है तो ज़ाहिर है उर्दू का काम भी बंद है। अकादमी को सरकार की तरफ से करीब 2.5 करोड़ रुपया ग्रांट के शक्ल में दिया जाता है। उसी तरह अंजुमन तरक्की उर्दू बिहार को सरकार पैसा देती है। ये दोनों एदारे उर्दू के विकास के लिए काम कर सकते हैं और सरकार को उर्दू के सिलसिले में मोनासिब मशवरा भी दे सकते हैं हालांकी मशवरा देने के लिए ही उर्दू परामर्शदाता समिति कायम किया गया है लेकिन उर्दू परामर्शदाता समिति भी भंग है। ज़ाहिर है उर्दू के एदारों की इस खस्ताहाली का असर उर्दू भाषा पर भी पड़ा है।

 

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उर्दू आबादी मायूस

राज्य में Second Official Language Urdu बोलने वाले लोगों की एक बड़ी आबादी है। विधानसभा के चार दर्जन सिटों पर उर्दू आबादी निर्णायक भुमिका अदा करती है लेकिन चुनाव में उर्दू आबादी को हमेशा ठगा जाता रहा है। सियासत से दुर उर्दू के जानकार कहते है कि उर्दू के लिए सरकारी सतह पर काम करने वाले एदारे को मज़बुत बना दिया जाए तो इस भाषा की तरक्की का रास्ता खुद ब खुद हमवार हो सकता है।

 

कैसे उर्दु की समस्याएं हल हो

जानकारों का कहना है कि सरकार और उर्दू आबादी दोनों मिल कर Second Official Language Urdu की मुश्किलों को हल कर सकते हैं। जैसे—
⦁ उर्दू अकादमी का गठन किया जाए।
⦁ अंजुमन तरक्की उर्दू बिहार को सरकार मदद करे।
⦁ उर्दू परामर्शदाता समिति का गठन किया जाए।
⦁ उर्दू निदेशालय अपने काम की निगरानी करे साथ ही ज़िलों में नियुक्त उर्द के कर्मचारियों पर उर्दू को लागु कराने के लिए सख्ती किया जाए।

 

उर्दू के विकास के रास्ते

दरअसल कोई भी भाषा अपने पढ़ने वालों से जिंदा रहती है। उर्दू, स्कूल, मदरसे, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। पढ़ने वाले बच्चें होगें तो यकीनन उर्दू का विकास भी होगा।

स्कूल– बिहार में करीब 74 हज़ार स्कूल है। जानकारों के मोताबिक आधे से ज्यादा स्कूलों में उर्दू के शिक्षक नही है। अंदाज़ा लगाना आसान है कि जहां Second Official Language Urdu पढ़ाने वाले शिक्षक ही नही है वहां उर्दू की तालीम कैसे होगी। कभी राज्य के स्कुलों में ना सिर्फ उर्दू के शिक्षक बल्कि फारसी और अरबी पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी नियुक्त किया जाता था लेकिन हुकूमतों की मेहरबानी रही की पहले अरबी को खत्म किया गया फिर फारसी को अब उर्दू पर भी तलवार लटकी रहती है। भाषा सिखना हर जमाने में अच्छी बात मानी जाती रही है। भाषा सिख कर लोग ना सिर्फ रोज़गार से जुड़ते है बल्कि उस भाषा में लिखी गई किताबें उनकी जानकारी में इज़ाफा का सबब बनती है लेकिन बिहार में ऐसा नही है। फारसी और अरबी की बात अब माज़ी का हिस्सा बन चुकी है। उर्दू की मौजुदगी बरकरार रहे इस बात को लेकर भी लोगों को जद्दोजहद करना पड़ रहा है।

मदरसा– मदरसा एक ऐसा एदारा है जहां की पढ़ाई उर्दू भाषा में होती है। ज़ाहिर है जो छात्र मदरसे में पढ़ते है वो उर्दू जानते हैं। बिहार में पहले से करीब 1,128 मदरसे हैं। नीतीश कुमार की सरकार में 2,459 और मदरसों को मंज़ुर करने का फैसला किया गया है, जिसमें करीब एक हज़ार मदरसों की मंजुरी भी मिल गई है। लेकिन मदरसों में तालीम से ज्यादा इस बात को लेकर आंदोलन होता रहा है कि शिक्षको का वेतन कैसे मिले। यानी सरकार मदरसा तालीम पर इस कदर मेहरबान रही है कि मदरसों के शिक्षकों को हमेशा वेतन के पचड़े में उलझा कर रखा गया है। बिहार मदरसा एजुकेशन बोर्ड जो सुबे के मदरसों की देख रेख करता है वो भी इस मसले को हल करने में मजबुर रहा है। जब मामला शिक्षा विभाग और सरकार से जुड़ा हो तो मदरसा बोर्ड क्या कर सकता है। मदरसों के शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के बजाए पटना का चकर काटते हैं ताकी उनको वेतन मिल सके। नतिजे के तौर पर बिहार में कोई एक भी ऐसा मदरसा नही है जिसे मॉडल मदरसा कहा जा सकता है और जहां पढ़ने वाले छात्रों का तालीमी मेयार काफी बेहतर हो। फिर भी मदरसों में पढ़ाई उर्दू भाषा में होती है तो छात्र उर्दू जानते हैं।

कॉलेज और विश्वविद्यालय– कॉलेज और विश्वविद्यालयों में वही छात्र पहुंचते हैं जो स्कूलों में या मदरसों में उर्दू पढ़ कर आए हैं। अब स्कूल और मदरसों में अगर उर्दू की तालीम का बेहतर इंतज़ाम होगा तो कॉलेज और विश्वविद्यालयों में भी छात्र उर्दू में उच्च शिक्षा हासिल करने के मकसद से दाखिला लेगें और उनकी पढ़ाई का मेयार भी बेहतर होगा।

उर्दू अखबार और उर्दू पत्रिकायें– उर्दू अखबार और उर्दू पत्रिकाओं की खरीदारों की कमी इस बात की तरफ इशारा करती है कि उर्दू पढ़ने वाले लोगों की कमी हो गई है। या फिर उर्दू वाले अखबार और पत्रिकाओं को खरिदना नही चाहते हैं। अब सवाल ये है कि सिर्फ Second Official Language Urdu के सिलसिले में सरकार से शिकवा करने से उर्दू का विकास तो होगा नही जब तक की उर्दू आबादी खुद भी उर्दू तालीम, उर्दू से लगाव और अपने घरों में उर्दू का माहौल कायम करने के लिए तैयार नही हों।

जारी

 

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