Maulana Mazharul Haque University Admission और मदरसा
Maulana Mazharul Haque University Admission और मदरसा
PATNA- पटना में मौलाना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी की स्थापना 1992 में की गई थी। युनिवर्सिटी को बनाने का मकसद बिल्कुल साफ था कि सूबे के उच्च शिक्षा देने वाले मदरसों को युनिवर्सिटी से जोड़ कर मदरसा तालीम के स्तर को ठीक किया जाए। 1998 से युनिवर्सिटी विधिवत रुप से चलना शुरु की। 2008 से Academic Session शुरु हुआ। करीब दो दशक गुजरने के बाद क्या युनिवर्सिटी को बनाने का मकसद पूरा हुआ है। आइए जानने की कोशिश करते हैं।
मौलाना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी
मौलाना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी कायम होने से पहले मदरसों के आलिम और फाज़िल यानी बीए और एमए के छात्रों की डिग्री बिहार मदरसा एजुकेशन बोर्ड देता था। नतीजे के तौर पर बिहार के बाहर किसी भी सूबे में मदरसों के आलिम और फाज़िल की डिग्री की मान्यता नही थी और हज़ारों छात्र हर साल मदरसों से बीए और एमए कर के भी नाकाम रह जाते थे। बात बिल्कुल सही है कि कोई बोर्ड बीए और एमए की डिग्री कैसे दे सकता है लेकिन बिहार में ऐसा हुआ। स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड की तरह ही मदरसा बोर्ड है। स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड बारहवीं तक के छात्रों की परीक्षा और डिग्री देता है लेकिन मदरसा बोर्ड मौलवी यानी बारहवीं के छात्रों के साथ-साथ बीए और एमए के छात्रों को डिग्री देता था। ये मसला 2009 में हल हुआ जब मौलाना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी ने मदरसों के बीए और एमए के छात्रों की परीक्षा लेना और डिग्री देने की शुरुआत की।
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आधा अधूरा फैसला
मौलाना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी की स्थापना के 11 साल बाद बीए और एमए स्तर के मदरसों को युनिवर्सिटी से जोड़ा गया वो भी आधा अधूरा। मौलाना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी के पास सिर्फ आलिम और फाज़िल (बीए और एमए) के छात्रों की परीक्षा लेने और डिग्री देने का ही अख्तियार है। जबकि उन मदरसों की प्रशासनिक जिम्मेदारी आज भी बिहार मदरसा एजुकेशन बोर्ड के पास है। ये एक हैरतअंगेज मामला है जब उच्च सिक्षा को मदरसा बोर्ड और युनिवर्सिटी के बीच उलझा कर मज़ाक बना दिया गया है।
उच्च शिक्षा के साथ भद्दा मज़ाक
बिहार में आलिम और फाज़िल (बीए और एमए) स्तर के 120 मदरसें हैं। करीब 30 हज़ार छात्र उन मदरसों में पढ़ रहे हैं और हर साल 12 से 13 हज़ार छात्र आलिम और फाज़िल में दाखिला लेतें हैं। Maulana Mazharul Haque University Admission के सिलसिले में मदरसों को निर्देश ज़रुर देती है लेकिन तालीम बेहतर हो इस बारे में युनिवर्सिटी खामोश है। अब सबसे बड़ा सवाल कि उन छात्रों को पढ़ाने के नाम पर उच्च शिक्षा देने वाले मदरसों में आलिम फाज़िल के एक भी पोस्ट की स्वीकृति नहीं है। बीए और एमए के मदरसों में सिर्फ मौलवी तक का पोस्ट मंज़ुर है। तो सवाल है कि बीए और एमए के छात्रों को कौन पढ़ाता है। अब आप अंदाज़ा लगाईए कि मौलवी तक के स्वीकृत पोस्ट पर नियुक्त शिक्षक बीए और एमए के छात्रों को पढ़ाते हैं। मौलाना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी उन छात्रों को डिग्री दे कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेती है। जानकार कहते हैं कि एक तरफ सरकार मदरसों की तालीम को बेहतर करने का राग आलापती है और दुसरी तरफ मदरसों के उच्च शिक्षा को मज़ाक बना दिया गया है।
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उलझन
दरअसल बिहार मदरसा एजुकेशन बोर्ड के पास अभी भी सूबे के आलिम और फाज़िल के मदरसों का प्रशासनिक अधिकार है। जबकी मौलना मज़हरूक हक विश्वविद्यालय का कहना है कि मदरसों के परीक्षा और डिग्री देने के साथ साथ उसका प्रशासनिक अधिकार भी युनिवर्सिटी के पास होना चाहिए तभी मदरसों के छात्रो का मसला हल होगा और उच्च शिक्षा तरक्की करेगा। लेकिन इतने अहम मामले पर भी चारों तरफ हैरान करने वाली खामोशी है।
छात्रों के भविष्य से खिलवाड़
क्या ये हो सकता है कि एक ही एदारे का परीक्षा कोई और ले और उस एदारे को चलाने की जिम्मेदारी किसी और की हो। डिग्री कोई और दे और पढ़ाने की जवाबदेही किसी और की हो। क्या ऐसा कभी किसी कॉलेज के साथ हुआ है। ये सब मदरसों के साथ होता है। इसलिए की मदरसों पर सियासत करने वाले लोगों को मदरसा तालीम से ज्यादा अपनी सियासत चमकाने में दिलचस्पी रहती है। मदरसों में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे 30 हज़ार छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ किया जा रहा है और सरकार इस मामले में कोई कार्वाई नही कर रही है, ऐसा क्यूं है। जानकारों के मोताबिक मदरसों के मामले में सरकार अगर कुछ करती है तो मदरसों से जुड़े लोग उसको गलत नज़रिया से देखते हैं। कई बार सरकार की दखलअंदाज़ी बता कर विरोध करने लगते हैं। ऐसे में सरकार पीछे हट जाती है। तो क्या सिर्फ यही वजह है या कोई और भी वजह जिसके कारण सरकार मदरसों के मसले को अब तक हल नही करा सकी है।
सरकार का रवैया
मौलना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी 2010 से लगातार इस मामले को हल कराने की कोशिश कर रही है। सरकार को खत लिखने के साथ साथ इस सिलसिले में कई बार मीटिंग भी की गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के समय इस सिलसिले में एक अहम मीटिंग हुई थी। शिक्षा मंत्री वृषन पटेल के साथ हुई उस मीटिंग में ये फैसला कर लिया गया था कि पहले पहले चरण में आलिम और फाजिल के मदरसों में कम से कम एक एक शिक्षक को ज़रुर नियुक्त किया जाएगा। लेकिन बाद में इस पर कोई कार्वाई नहीं हुई। बीए और एमए के मदरसों के छात्रों के लिए शिक्षक नियुक्ति की मांग विधानसभा में भी गुंजा है। सरकार ने आश्वासन दिलाया लेकिन हुआ कुछ नहीं।
बीए और एमए के मदरसों में शिक्षकों की नियुक्ति
आलिम और फाज़िल के मदरसों में आलिम के लिए 4 और फाज़िल के लिए 6 सिक्षकों की ज़रुरत है। अगर इन मदरसों की पूरी जिम्मेदारी मौलना मज़हरूल हक युनिवर्सिटी को दी गई तो उच्च शिक्षा देने वाले मदरसे युनिवर्सिटी के कॉलेज बन जाएगें। फिर उन मदरसों में शिक्षकों की बहाली एक तरह से कॉलेज के शिक्षकों की जैसी होगी। और मापदंड पर नियुक्ति हुई तो मदरसों में 600 से ज्यादा नए पोस्ट आ जाएगें। अगर ऐसा हुआ तो सरकार को साल में करीब 30 से 35 करोड़ रुपया अलग से खर्च करना होगा। ज़ाहिर है ये मामला ऐसे ही नही लटका है। जानकारों के मोताबिक मदरसों पर अलग से सालाना एक बड़ी रकम खर्च नही हो लेहाज़ा शिक्षक नियुक्ति की स्वीकृति नही दी जारही है। तो फिर इस को किस तरह से देखा जाए… क्या मदरसों का उच्च शिक्षा भाषण देने से ही तरक्की कर जाता है। क्या मदरसों से बीए और एमए करने वाले छात्रों के भविष्य की कोई कीमत नही है। क्या हर साल 12 हज़ार पास करने वाले छात्रों को ये हक नही है कि उनके बेहतर तालीम का इंतज़ाम सरकार करे। अगर सरकार सुशासन और इंसाफ के साथ तरक्की की बात करती है तो उसे पहली फुर्सत में मदरसों की उच्च शिक्षा का मसला हल करना चाहिए। उस उलझन को खत्म करना चाहिए जिससे हज़ारों छात्रों का भविष्य दांव पर लगा है।
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