Minority Education

 

बिहार का Minority Education

 

अल्पसंख्यक समाज की तरफ से Minority Education को बढ़ावा देने की होनी चाहिए पहल

 

PATNA- भारत का संविधान अनुच्छेद 30 के तहत मुस्लिम समाज को स्कूल खोलने और उसे चलाने का अधिकार देता है। संविधान में दिए गये अधिकार का इस्तेमाल कुछ राज्यों के मुसलमानों ने किया है लेकिन ज्यादातर सूबे के मुसलमानों ने उस अधिकार का इस्तेमाल करना कभी भी जरूरी नहीं समझा है। बिहार की बात करें तो 17 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में Minority Education को बढ़ावा देने के लिए अल्पसंख्यक समाज की तरफ से ठोस कोशिश नहीं की गई है। मुस्लिम समाज पूरी तरह से सरकार पर निर्भर नज़र आता है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत वो स्कूलों की स्थापना कर सकते हैं और अपनी पसंद के मुताबिक उसे चला सकते हैं, जानकारों का कहना है कि बिहार का अल्पसंख्यक समाज Minority Education के मसले पर बात तो खुब करता है लेकिन उसे हल करने की कोशिश नहीं करता है। अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के नाम पर मुस्लिम समाज की तरफ से कायम किए गये करीब 38 अल्पसंख्यक स्कूल, सरकार से स्वीकृत 1,942 मदरसे, करीब 3 हज़ार निजी मदरसे और छोटे-छोटे मकतब, चंद कालेज एवं टेकनिकल एदारे हैं।

 

Minority Education

 

 

अल्पसंख्यक क्षेत्रों में स्कूल खोलने की मांग

 

मुसलमानों के रहनुमा सरकार से अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में शैक्षणिक संस्थान खोलने की मांग करते रहे हैं। उनकी ये मांग जायज़ है। हाशिए पर खड़ी आबादी के विकास के लिए और Minority Education को बढ़ावा देने के लिए सरकार की तरफ से पहल की जानी चाहिए। उतना ही ये जरूरी है कि समाज खुद भी अपनी तालीमी मुश्किलों को हल करने की कोशिश करें और संविधान के अनुच्छेद 30 में दिये गये अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए तालीमी एदारे कायम करें। जिसमें साफ कहा गया है कि अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के तालीमी एदारों की स्थापना करने और चलाने का अधिकार है।

 

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शिक्षा के विकास के लिए सरकार करे पहल

 

बुद्धिजीवियों का कहना है कि बिहार जैसे पिछड़े राज्य में सरकार की तरफ से शिक्षा के मामले में उतनी कोशिश अभी तक नहीं की गई है जितनी इस राज्य के लोगों को जरूरत है। मिसाल के तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी स्कूलों की कमी के कारण छात्रों की तालीम अधूरी रह जाती है। 80 हज़ार के करीब सरकारी स्कूल है, ज़ाहिर है राज्य की आबादी के अनुपात में स्कूलों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। मुस्लिम समाज का मामला और भी पेचीदा है। राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी मुस्लिम बच्चे मिडिल स्कूल पास कर पाते हैं। ऐसे हालात के बाद भी अल्पसंख्यकों की तरफ से स्कूलों की स्थापना के सिलसिले में गंभीर कोशिश आज तक नहीं की जा सकी है।

 

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सियासी हिस्सेदारी के सवाल में उलझी मुस्लिम राजनीति

 

लगातार कई दशकों से सियासत में हिस्सेदारी का सवाल मुसलमानों के बीच कायम रहा है। सियासी पार्टियों के नेताओं ने अल्पसंख्यक समाज को सियासत में हिस्सेदारी देने के सवाल पर हमेशा डंडी मारी की है। बड़ी चतुराई से अल्पसंख्यकों को सियासी हिस्सेदारी के सवाल में उलझा कर बुनियादी मसले को ठंडे बस्ते में डालने की कामयाब कोशिश होती रही है। ये सही है कि सियासी नेतृत्व नहीं होने से अल्पसंख्यकों के मसले हल नहीं होते हैं लेकिन शैक्षणिक तौर पर पिछड़े रहने से भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बदलाव नहीं हो रहा है। ऐसे में जितनी कोशिश सियासी हिस्सेदारी के सवाल पर की जाती है कम से कम उतनी ही कोशिश शैक्षणिक मसले को हल करने के लिए भी की जानी चाहिए।

 

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शिक्षा से ही बदलेगा समाज

 

शिक्षा समाज के उत्थान का बड़ा कारण है। बुनियादी शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, नवा चार और ई-कॉमर्स जैसे शिक्षा हासिल कर अल्पसंख्यक समाज सामाजिक और आर्थिक तौर पर मजबूत हो सकता है। जानकारों का कहना है कि सरकार से जो मांग करना है वो तो करना ही चाहिए लेकिन बदलते समय में समाज की तरफ से खुद भी Minority Education के मसले को हल करने की कोशिश होनी चाहिए। खासतौर से मुस्लिम बहुल इलाकों में शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के साथ-साथ नए जमाने की तालीमी व्यवस्था कर छात्रों की मुश्किल को आसान बनाया जा सकता है। संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए तमाम अख्तियार मौजूद है, जरूरत इस बात की है कि अल्पसंख्यक समाज में जो लोग स्कूलों को खोल सकते हैं उन्हें जरूर इस तरफ कदम बढ़ाना चाहिए।

 

अल्पसंख्यक क्षेत्रों में तालीमी एदारों की कमी

 

बिहार के अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में स्कूलों की कमी एक आम बात है। उसमें लड़कियों की तालीम का कोई खास इंतज़ाम नहीं है। सीमांचल में आबादी के अनुपात में स्कूल काफी कम है। चंपारण, मिथिलांचल की हालत थोड़ी बेहतर जरूर है लेकिन अल्पसंख्यक क्षेत्रों में उन इलाकों में भी परेशानी है। मुस्लिम समाज के नेता सिर्फ सियासी रसूख हासिल करने और सत्ता के साथ बने रहने भर को कामयाबी मानते हैं। कभी वो लालू प्रसाद यादव के दिवाने बने तो कभी नीतीश कुमार के। आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस और कुछ और पार्टियों को मुसलमानों का वोट मिलता है। मुस्लिम सियासी नेताओं का मकसद अपनी-अपनी पार्टी की झोली में मुस्लिम वोटों को डाल कर सत्ता के करीब बने रहने की रही है। वो अपने मकसद में कामयाब होते रहे हैं लेकिन समाज के शैक्षणिक उत्थान का मामला हमेशा खटाई में रहा है।

 

तालीम के नक्शे पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की जरूरत

 

शिक्षाविदों की माने तो 17 फीसदी आबादी का बड़ा हिस्सा अगर तालीम से नहीं जुड़ा तो उस समाज के साथ-साथ राज्य को भी नुकसान उठाना पड़ेगा। ऐसे में समाज को जहां अपनी जवाबदेही समझनी चाहिए वहीं सरकार को भी गंभीर होने की जरूरत है। आर्थिक मोर्चे पर तंगहाली का वक्त काट रहे लोगों की शैक्षणिक मदद दरअसल समाज की तरक्की के लिए किया गया एक बड़ा कदम माना जाएगा। जानकारों का कहना है कि बिहार में नीतीश कुमार ने काम किया है लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में और काम करने की आवश्यकता है ताकि बिहार शैक्षणिक मानचित्र पर फिर से वो मुकाम हासिल कर सके जब बिहार तालीम के मामले में कभी एशिया का नेतृत्व करता था।

 

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